यह बात लगभग 2004-05 की रही होगी, जब मैं चौथी या पांचवी कक्षा का विद्यार्थी था । समय मुझे ठीक – ठीक याद नहीं रहा, लेकिन इतना याद है कि बरसात का मौसम था । दोपहर के समय आधी छुट्टी होती थी । मिड – डे मील के अंतर्गत उबले हुए गेंहू की गुड़ के साथ गुगरी हमें स्कूल में ही खाने को मिलती थी । लेकिन उसके बाद भी हम घर जाते थे । कभी – कभी तो नहाने के बहाने कुएं में कूदने भी निकल जाते थे । दोपहर को तैरना ! अजीब है ना ! आपको यह अजीब लग रहा होगा लेकिन ये सच है । नया – नया तैरना सीखे थे, इसलिए कभी कभी तो दिन में 6 बार भी तैरना हो जाता था । वो सब एक पागलपन था, जिसके बारे में सोचकर अब हंसी आती है ।
हमेशा की तरह उस दिन भी दोपहर की आधी छुट्टी हुई । हम कभी – कभी मिड – डे मील नहीं खाते थे, क्योंकि कभी कभी गुगरी से केरोसिन की बदबू आती थी । शायद बनाने वाले चूल्हा जलाने के लिए करोसिन का इस्तेमाल करते थे । जिससे उनके हाथ भी केरोसिन में हो जाते होंगे और उन्हीं हाथों को बिना धोएं गुगरी बना डालते होंगे । खैर जो भी हो ।
उस दिन हमने गुगरी नहीं खाई । हम तीन दोस्त थे । राजेन्द्र, जगदीश और मैं । घर आकर हमने खाना खाया और मोर के पंख जुटाने के लिए हमारे बाड़े की ओर चल दिए । बाड़ा गाँव से लगभग 10-15 मिनट के रास्ते पर है । हमारे बाड़े में जाने के दो रास्ते है । एक शार्टकट है, किन्तु बरसात का मौसम होने से वह रास्ता उस समय बंद था । इसलिए हम लम्बे रास्ते से गये ।
हम मोर के पंख तलाश करते हुए सबके बाड़े में घुमने लगे उसके बाद मेरे बाड़े में आये । वहाँ हमें एक – दो मोर के पंख मिले भी थे शायद ! मेरे बाड़े के बाद जगदीश के बाड़े का नंबर आता है । हम उसमें भी घूमें । बाड़े में उस समय 7-8 इंच बड़ी घास थी और मोर के पंख भी दूर से लगभग हरे ही दीखते है । इसलिए हमें लगभग पुरे बाड़े में घूमना होता था । जगदीश के बाड़े में उसे कोई काम था, इसलिए उसे वही छोड़कर हम आगे बढ़ गये । अगला नंबर राजेन्द्र के बाड़े का था ।
राजेन्द्र के बाड़े में ज्यादातर पेड़ पोधे थे । दो बांस के बड़े गुच्छे और तीन – चार बकान के बड़े पेड़ थे । राजेन्द्र बाड़े के ऊपरी छोर पर था और मैं नीचे के छोर पर था । जहाँ मैं था उसी साइड पेड़ – पौधे ज्यादा थे । मोर के पंख ढूंढते – ढूंढते जब मैं एक बकान के पेड़ के साइड गया तो मैंने एक औरत को सफ़ेद वस्त्रों में देखा । मुझे लगा राजेन्द्र की माँ होगी । तो मैं बोला – “ बाई !” मैंने इतना ही कहा था कि उसने गर्दन ऊपर उठाई और घूँघट हटाया । काली आंखे और बदसूरत चेहरा देखकर मैं कांप गया । उसकी आंखे ऐसे थी जैसे उसने बुरी तरह काजल लगा रखा हो । मैं डरकर भागा और बाड़े की बाड़ कूदकर बाहर निकलकर राजेन्द्र पर चिल्लाने लगा – “ बाहर आ – बाहर आ ! देख यहाँ कोई है !।”
वह पूछने लगा कौन है । मैंने इशारे से उसे बताया । इतने में वो डरावनी चुड़ेल खड़ी हो गई । जैसे ही उसने उसकी शकल देखी, वो डरकर भागा । उसे भागता देख मैं और आगे भागा । हम दोनों वहाँ से कुछ ही दुरी पर एक बरगद के पेड़ के नीचे खड़े होकर जगदीश पर चिल्लाने लगे । उसे आने के लिए पुकारने लगे । वो उसके बाड़े से निकलकर आया और पूछने लगा – “ क्या हुआ ? कोई सांप देख लिया क्या ?”
मैंने दबी हुई आवाज में कहाँ – “ अरे वहाँ उस बकान के पेड़ के नीचे एक डरावनी औरत है ।” हममें से वही बड़ा और थोड़ा निडर था । मेरी बात की उपेक्षा करते हुए वह बोला – “ अरे यार ! राजेन्द्र की दादी होगी । घर में कोई लड़ाई हो गई होगी इसीलिए यहाँ आकर बैठ गई होगी ।” यह कहते हुए वह उस पेड़ की ओर गया जहाँ वह औरत बैठी थी ।
मैंने दबी हुई आवाज में कहाँ – “ अरे वहाँ उस बकान के पेड़ के नीचे एक डरावनी औरत है ।” हममें से वही बड़ा और थोड़ा निडर था । मेरी बात की उपेक्षा करते हुए वह बोला – “ अरे यार ! राजेन्द्र की दादी होगी । घर में कोई लड़ाई हो गई होगी इसीलिए यहाँ आकर बैठ गई होगी ।” यह कहते हुए वह उस पेड़ की ओर गया जहाँ वह औरत बैठी थी ।
वह इतना बेपरवाह था कि सीधा उसके पास चला गया और बोला “बाई !” जब उसने उसकी तरफ देखा तो उसके पसीने छुट गये । वह इतनी तेजी से वहाँ से भागा कि उसने रास्ता देखना भी उचित नहीं समझा । सीधा बाड़े की बाड़ कूदकर हमारे पास आ गया । लेकिन जल्दबाजी में उसकी चप्पल रास्ते में ही खुल गई । उसे भागता देख हम भी भाग लिए । भागते – भागते हम गाँव में आ गये । गाँव में घुसते ही हमें पहले व्यक्ति कन्हैयालाल जी मिले । उनका घर वहाँ पास में ही था । हांफते हुए हमने सारी बात उनको बताई । वो बोले – “ चलो ! मुझे दिखाओ ।”
हम उनको लेकर वहाँ गये लेकिन तब वहाँ कोई नहीं था । हमने आस – पास दूर – दूर तक देखा लेकिन कोई नजर नहीं आया । आखिर बच्चो की बात पर कौन विश्वास करता । वह भी ऐसी ही बात बोलकर चल दिए । जगदीश ने अपने चप्पल लिए और हम तीनों घर आकर स्कूल के लिए निकल गये ।
अब मैं नहीं जानता कि वह कौन थी, कहाँ से आई थी और 3-4 मिनट में कहाँ गायब हो गई ? लेकिन उसकी शक्ल आज भी मेरे दृष्टि पटल पर है । जहाँ तक मुझे पता है, हमारे गाँव में कोई भी औरत सफ़ेद वस्त्र नहीं पहनती तो उसने क्यों पहन रखे थे ? अगर वो कोई थी भी तो उसका हमें दिखना महज एक संयोग था । क्योंकि उसने हमें कोई नुकसान नहीं पहुँचाया । ना ही उसने हमें डराने की कोशिश ही की । शायद कोई परेशान आत्मा होगी !
अब मैं सोचता हूँ कि क्या वो चुड़ेल थी ? काश वो बोलती, काश हमने उससे बात की होती ! कुछ तो पता चलता !
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